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पहले प्रावधान हो फिर विधान हो

kuchhalagsa.blogspot.com
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कई बार लगता है कि जोश में, भावनाओं के अतिरेक में, कुछ कर गुजरने की चाह में, बिना मौजूदा स्थिति का आकलन किए ऐसे नियम पारित कर दिए जाते हैं जिनका तत्काल लागू होना लगभग नामुमकिन होता है। फिर बिना सोचे-समझे “टारगेट” पूरा करने के चक्कर में आम आदमी की पीसाईं शुरू हो जाती है ! इसी संदर्भ में याद आता है, सत्तर के दशक के कलकत्ता शहर के लिए पारित किया गया एक कानून, जिसके तहत यदि कोई मूत्रालय के अलावा कहीं और मूत्र-विसर्जन करते पकड़ा गया तो उसे जुर्माना भरना पड़ता था ! शहर को साफ़-सुथरा रखने के लिए उठाया गया था यह कदम। सोच अच्छी थी, पर नियम लागू करते समय किसी ने शहर की करीब एक करोड़ की आबादी के अनुपात में नहीं के बराबर मूत्रालयों की संख्या पर नाहीं सोचा था, नाहीं ध्यान दिया था ! यदि उचित व्यवस्था के बाद किसी को दोषी पाया जाता तो बात समझ में आती थी पर यहां तो सिर्फ मनाही लागू कर दी गयी थी ! अंजाम; संघर्ष, अराजकता, असंतोष, टकराव !

आज तकरीबन चालीस वर्षों के ऊपर गुजरने के बावजूद सरकारी ढर्रा वैसा ही है। स्वच्छता अभियान का जोरों शोरों से प्रचार हो रहा है, अच्छा है, साफ़-सफाई के बिना जीवन दूभर हो जाता है; पर क्या सिर्फ बोलने, भाषणों-नारों से ही स्वच्छता तारी हो जाएगी ? एक-दो दिन दस-बीस लोगों के झाड़ू के साथ कैमरे के सामने घूमने से ही जागरूकता आ जाएगी ? क्या हर घर में शौचालय कहने से ही बन जाएगा ? जिनके घर ही नहीं हैं उनका क्या होगा ? किसी के पास क्या सही आंकड़ा है कि भारत में कितने लोग छत-विहीन हैं और वे जीवन भर गर्मी-बरसात-सर्दी हर मौसम में कहां और कैसे सोते हैं ? उन लोगों के लिए प्रकृति की पुकार का शमन करने के लिए कहां जाने का प्रावधान है ? सुलभ शौचालय बने जरूर हैं पर एक तो उनकी संख्या पर्याप्त नहीं है दूसरे उसमें जाने का “जुर्माना” वे लोग कैसे देंगे जिनकी रोज की आमदनी ही इतनी नगण्य है कि वह यही सोचता रह जाए कि वह खाने पर खर्च करे या “जाने” पर ! अपनी जिंदगी को देखे कि देश की स्वच्छता को ? और ऐसों की गिनती लाखों में है ! तो बिना इनकी मजबूरी दूर किए कैसे स्वच्छता के सपने को पूरा करने का सोचा भी जा सकता है ?

इसी कड़ी में, आज जो कार्य-व्यवसाय को नगद-विहीन करने की कवायद जोरों-शोरों से लागू करने का अभियान चलाया जा रहा है। उसके लिए बहुत ही मजबूत इंटरनेट व्यवस्था की जरुरत है। पर खेद की बात है कि वह चाहे B.S.N.L. हो या #M.T.N.L. दोनों ही अपनी कसौटी पर बूरी तरह नाकाम रहे हैं। चाहे वह नेट की “स्पीड” हो या उसकी उपलब्धता। लोगों की अनगिनत शिकायतों के बावजूद कोई भी सुधार होता नजर नहीं आता। जब वे अभी तक का बोझ नहीं उठा पा रहे तो कैसे कोई यकीन कर ले कि आने वाले दिनों में होने वाली व्यवस्था में ये कंपनियां सुचारू रूप से काम कर पाएंगी। लोगों के दिलों में तो अब यह बात घर करने लग गयी है कि यह अक्षमता दूसरी प्रायवेट कंपनियों के लाभ के लिए आयोजित की जाती है। नहीं तो क्या बात है कि हर तरह की सुविधा और सक्षमता के बावजूद इनका नेटवर्क सबसे गया-बीता है। कड़वा सच तो यही है कि कुछेक कर्मचारियों की लापरवाही या अपने तुच्छ लाभ के लिए उनके द्वारा की गयी अनुचित कार्यवाही के चलते बदनामी तत्कालीन सरकार को ही मिलती है ! क्या इस ओर माननीय #संचारमंत्रीजी ध्यान देंगे !

यह बात सही है कि जनहित में लिए गए निर्णयों को जल्द से जल्द लागू हो जाना चाहिए पर हमारे देश की अंग्रेजों के समय से चली आ रही लाल-फीताशाही में अभी भी बदलाव नहीं आया है। जिसके चलते योजनाओं को लागू होने में वर्षों लग जाते हैं। पर साथ ही यह भी ध्यान रखना लाजिमी होता है कि जो योजना बनाई जा रही है उसके लिए उचित व्यवस्था व संसाधन उपलब्ध हैं भी कि नहीं !!

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