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सिनेमा घरों में राष्ट्रगान

kuchhalagsa.blogspot.com
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अपने यहां तर्क-वितर्क बहुत होते हैं। हर आदमी हर चीज का विशेषज्ञ बना हुआ है। कोई भी बात हो उसमें कमी खोजना फैशन बन गया है। आए दिन एक विवाद ख़त्म होता नहीं दूसरा शुरू हो जाता है। नयी बहस सिनेमा हॉलों में फिल्म शुरू होने के पहले राष्ट्रध्वज दिखलाने के साथ-साथ राष्ट्रगान बजाते समय उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों पर  कर हुई है। जिस दिन न्यायालय ने सिनेमाघरों में फिल्म के पहले राष्ट्रगान बजाने का नियम लागू किया उसी दिन से कुछ लोगों में असमंजस की स्थिति बन गयी। कुछ जगह इस बात को ले लोगों

फिल्म के बीच में बजने वाले गान के दौरान खड़ा होना जरुरी नहीं है। पर बात यहां ख़त्म नहीं हुई हमारे कुछ ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों ने, जिनमें सिनेमा घरों के मैनेजर तक हैं, फिल्म के बीच का अर्थ निकाल लिया कि अब राष्ट्र गान मध्यांतर के समय बजेगा ! उन्होंने आपत्ति दर्ज कर दी कि उस समय लोग कुछ खा-पी रहे होते हैं और हॉल के डिलीवरी बॉय भी कुछ न कुछ वितरित करते रहते हैं, इससे फिर अव्यवस्था फ़ैलाने की पूरी गुंजाइश हो सकती है। बिना सोचे-समझे, बिना पूरी जानकारी हासिल किए कुछ भी समझ कर कुछ भी बोल देना हमारी आदत में शुमार हो चुका है। इसमें देश का हर वर्ग शामिल है।


कुछ वर्षों पहले ऐसे ही फिल्म के खत्म होने पर राष्ट्रगान बजाया जाता था। जिसे लोग अनमने ढंग से सुनते थे। दरवाजों तक आ पहुंचे बाहर निकलने को आतुर दर्शकों को द्वार बंद कर एक तरह से जबरदस्ती गान सुनवाया जाता था। फिर अनचाही परिस्थितियों के कारण उसे बंद कर दिया गया। अब फिर एक आदमी की याचिका पर इसे शुरू किया गया है।

इंसान की फ़ितरत है कि बिना मजबूरी के, वह किसी के कहने या थोपे गए आदेश के चलते, सहज नहीं रहता, जैसे कि अपनी मर्जी से भले ही वह एक जगह घण्टों बैठा रहे पर किसी के कहने पर वह दस मिनट में ही ऊब जाता है। वैसा ही हाल राष्ट्रगान के बजाने का है। पर क्या किसी में जबरदस्ती राष्ट्र-प्रेम की भावना भरी जा सकती है। यह नहीं कहा सकता कि गान के दौरान खड़ा ना होने वाला वाला इंसान देश विरोधी है पर उसके ऐसा करने पर माहौल तो असहज हो ही जाता है।

बात सम्मान की है, यदि कोई जबरदस्ती खड़ा हो भी जाता है पर उसका ध्यान कहीं और होता है तो उसका क्या फ़ायदा ! अभी दो दिन पहले फिल्म देखने जाना हुआ था, शुरू होने के पहले जब राष्ट्रगान बजा तो सब खड़े तो हुए पर दसियों लोग अपने मोबाइल में ही उलझे दिखे। मेरी सामने वाली कतार में भी एक युवक अपने मोबाइल पर झुका हुआ था, गान के दौरान तो मैंने उससे कुछ न कहा, उचित भी नहीं था, पर गान ख़त्म होने पर रहा नहीं गया और सिर्फ यही कहा कि सिर्फ 52 सेकेंड की अवधि का होता है नेशनल सांग, उसने तो बात  समझ कर सॉरी कहा, पर सवाल वही रहा कि क्या जबरदस्ती खड़ा करवा कर किसी से सम्मान करवाया जा सकता है ? वह तो दिल से होना चाहिए !  इन सब को मद्दे नज़र रख क्या राष्ट्रगान को सिनेमा हॉल में दिखाए जाने वाले नियम पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए ?

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