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एक दिन का यादगार सेमिनार

kuchhalagsa.blogspot.com
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पर्यावरणविदों और पशु-पक्षी संरक्षण करने वाली संस्थाओं ने मेरे सोते हुए कस्बाई शहर को ही क्यूं चुना, अपने एक दिन के सेमिनार के लिए, पता नहीं ! इससे शहरवासियों को कोई फ़ायदा हुआ हो या न हुआ हो पर शहर जरूर धुल-पुंछ गया। सड़कें साफ़-सुथरी हो गयीं। रोशनी वगैरह की थोड़ी ठीक-ठाक व्यवस्था कर दी गयी। गहमागहमी काफ़ी बढ़ गयी। बड़े-बड़े प्राणीशास्त्री, पर्यावरणविद, डाॅक्टर, वैज्ञानिक, नेता, अभिनेता और भी न जाने कौन-कौन, बड़ी-बड़ी गाड़ियों मे धूल उड़ाते पहुंचने लगे।
नियत दिन, नियत समय, नियत विषयों पर स्थानीय सर्किट हाउस में बहस शुरू हुई। नष्ट होते पर्यावरण और खासकर लुप्त होते प्राणियों को बचाने-संभालने की अब तक की नाकामियों और अपने-अपने प्रस्तावों की अहमियत को साबित करने के लिए घमासान मच गया। लम्बी-लम्बी तकरीरें की गयीं। बड़े-बड़े प्रस्ताव पास हुए। सैंकड़ों पौधे लगाने की योजनाएं बनी। हर तरह के पशु-पक्षी को हर तरह का संरक्षण देने के प्रस्तावों पर तुरंत मुहर लगी। यानी कि काफी सफल आयोजन रहा।
दिनभर की बहसबाजी, उठापटक, मेहनत-मशक्‍कत के बाद जाहिर है, जठराग्नि तो भड़कनी ही थी। सो सर्किट हाउस के खानसामे को हुक्म हुआ, लजीज़, बढि़या, उम्दा किस्म के व्यंजन बनाने का। खानसामा अपना झोला उठाकर बाजार की तरफ चल पड़ा। शाम घिरने लगी थी।
पक्षी दिनभर की थकान के बाद लौटने लगे थे, पेड़ों की झुरमुट में बसे अपने घोंसलों और बच्चों की ओर। वहीं पर कुछ शरारती बच्चे अपनी गुलेलों से चिड़ियों पर निशाना साधकर उन्हें  मार  गिराने में लगे हुए थे। पास  जाने पर खानसामे ने तीन-चार घायल बटेरों को बच्चों के कब्जे में देखा। अचानक उसके दिमाग की बत्ती जल उठी और चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी। उसने  बच्चों को डरा धमका कर भगा दिया। फिर बटेरों को अपने झोले में डाला, पैसों को अंदरूनी जेब में और सीटी बजाता हुआ वापस गेस्ट हाउस की तरफ चल दिया। खाना खाने के बाद, आयोजक से लेकर खानसामे तक, सारे लोग बेहद खुश थे। अपनी-अपनी जगह, अपने-अपने तरीके से, सेमिनार की अपार सफलता पर।

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