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आजकल हर समाचार पत्र समूह अपने को देश का नंबर एक, सबसे विश्वसनीय, सबसे तेज आदि-आदि घोषित करता रहता है। तक़रीबन सबकी टैग लाइन में यह सम्मिलित होता है, जबकि असलियत तो अब किसी से छिपी हुई भी नहीं है। खैर पिछले दिनों एक ऐसे ही समूह की पत्रिका में मेरी भी एक रचना छप गयी। बीसेक दिन बाद एक फोन आया कि मैं फलां-फलां से फलां-फलां बोल रहा हूं, आपकी एक रचना हमारी पत्रिका में छपी थी, उसी सिलसिले में आपकी और आपके एड्रेस की कन्फर्मेशन चाहिए थी। मैंने कहा हां भाई, मैं ही वह फलाना आदमी हूं। महीना भर बीत गया, कोई ऊंध-सूंध नहीं। इसी बीच एक और रचना छपकर आ गयी। मैंने भी सोचा छप गयी सो छप गयी। पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है। पैसे-वैसे के मामले में ये लोग कुछ ज्यादा ही विश्वसनीय होते हैं, तो बात आयी-गयी हो गयी।
इसके करीब एक महीने बाद डाक से एक चेक आया। जाहिर है अच्छा लगना ही था। एक-दो दिन बाद उसे बैंक में डाल उसके कैश होने का इंतजार कर ही रहा था कि दो-तीन दिन बाद डाकिए ने फिर आवाज लगाई। अपन को लगा, ले भाई दूसरा मेहनताना भी आ गया। खोला तो चेक जरूर था पर पहले वाला ही, जो बैंक द्वारा ‘उछाल’ कर वापस भेज दिया गया था। कारण, उन महानुभावों के दस्तखत जो चेक पर थे, उनका मिलान नहीं हो पाना था। अब, पहले कभी ऐसे ‘हादसे’ से पाला नहीं पड़ा था, तो सौजन्यवश पहले भले लोगों को खबर करने के लिए उनका पता ढूंढना शुरू किया। आजकल हर बड़ा पत्र खुद को ‘राष्ट्रीय’ दिखलाने के चक्कर में हर बड़े शहर से अपना पर्चा निकालने लगा है। भले ही वहां वह रैपर के काम में ही ज्यादा आता हो। इसी चक्कर में पहले उसके मुख्यालय से फोन जोड़ा, तो वहां उपस्थित महिला ने बिना पूरी बात सुने सिर्फ पत्रिका का नाम सुनकर, फोन कहीं और ट्रांसफर कर दिया। वहां अपना दुखड़ा बताने पर वहां से बताया गया कि पत्रिका जरूर यहां से छपती है पर भुगतान मुख्यालय से किया जाता है। मैंने कहा वहीं से मुझे इधर धकेला गया है। जवाब मिला आपको वहीं फिर बात करनी होगी।
दोबारा पहली जगह फोन लगते ही मैंने उस भली महिला से कहा कि बिना पूरी बात सुने आप बटन क्यों दबा देती हैं? पता नहीं घर से लड़कर आई थी या आदत ही ऐसी थी, कहने लगी कि सबेरे से इतने फोन आते हैं, किस-किस की पूरी बात सुनूं? मैंने कहा कि यह क्या बात हुई, बिना पूरी बात सुने आप कैसे कहीं भी फोन ट्रांसफर कर सकती हैं? मेरा चेक बाउंस हुआ है, मुझे उसकी खबर देनी है। जवाब क्या दिया महिला ने- मैंने थोड़े ही आपका चेक बाउंस किया है? भेजा सटक तो रहा था, लग रहा था मैंने ही गुनाह किया है। फिर भी कहा एकाउंट डिपार्टमेंट से बात करवाइये। वहां भी कुछ हल्के तरीके से ही बात ली जा रही थी कि चेक वापस भेज दीजिए, दूसरा भिजवा दिया जाएगा। मैंने फोन रख दिया।
कहां मैं सोच रहा था कि बेकार में ही किसी को नुकसान न हो, इसलिए पहले संबंधित व्यक्ति को ही खबर करनी चाहिए पर यहां तो जैसे ये रोजमर्रा की आदत थी। अब मैंने सीधे संचालक को ही पत्र लिखने के लिए उसका ई-मेल तलाशा। उसकी बायोग्राफी, उसकी पारिवारिक गाथा जरूर मिली, लेकिन वह नहीं मिला जो मैं खोज रहा था। दिमाग की सटकन बढ़ती जा रही थी। कुछ कर ही डालने का मन होता जा रहा था। तभी दूसरे दिन एक फोन आया, जिसमें अपनी गलती मानते हुए बार-बार क्षमा मांगी जा रही थी। अपन कौन से किसी से लड़ने के लिए ही बैठे रहते हैं। सो सुलह-सफाई हो गयी। चेक वापस भेज दिया। जब आना हो आ जाएगा।
यह सब तो हो गया पर एक बात समझ में नहीं आई। गलती करे कोई, भरे कोई। बैंक तो ताड़ में बैठे ही रहते हैं कि मुर्गा कोई गलती करे और उसका गला काटें, तो उसने मुझे जो रजिस्टर्ड खत भेजा और मैंने जो चेक कुरियर से वापस किया, इन सबका जुर्माना तो मुझे ही चुकाना होगा, क्यों?
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