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गैजेट्स पर निर्भरता हमें अपंग ना बना दे

kuchhalagsa.blogspot.com
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आजकल “गैजेट्स” पर हमारी निर्भरता भविष्य में खतरनाक रूप ले सकती है। हम समझ नहीं पा रहे हैं पर धीरे-धीरे परवश होते चले जा रहे हैं। बहुत पहले “मैन्ड्रेक जादूगर कॉमिक्स” में एक कहानी थी जिसमें रोबोट इंसान को अपने वश में कर गुलाम बना लेते हैं। मशीन इंसान पर पूरी तौर से हावी हो जाती है। इस पर शायद फिल्म भी बन चुकी है। प्राथमिक स्तर पर ऐसी कुछ घटनाओं की शुरुआत हो भी चुकी है। हालांकि नए गैजेट्स के अपार फायदे हैं पर इन्होंने ही कई बातों का भट्ठा भी बैठा दिया है।


GPS


बाल-वृद्ध सब उसके शिकंजे में कसते चले जा रहे हैं। याद कीजिए कुछ ही वर्षों पहले जब घर में स्थिर फोन हुआ करता था तो घर के प्रत्येक सदस्य को दस-पांच जरूरी नंबर तो याद रहते ही थे, आज कइयों को अपना नंबर ही याद नहीं रहता, क्योंकि इसकी जिम्मेदारी चलित फोन ने ले ली है और जब किसी कारणवश उसकी यादाश्त लुप्त हो जाती है तो कैसी परिस्थिति सामने आती है, वही बताने जा रहा हूँ।


अभी दो दिन पहले पंजाब निवासी मेरे मामाजी ने अपनी बेटी के पास नार्वे जाने की खबर मुझे दी। उड़ान सुबह पांच बजे की थी। कुछ समय मेरे साथ बिताने के लिए वे अपने पुत्र के साथ एक दिन पहले दिल्ली आ गए। मैं उन्हें लेने नई दिल्ली स्टेशन गया था, पर कुछ हुआ और उनका फोन लगना बंद हो गया, स्थिति अपंगता सी हो गयी। घर फोन कर उनसे बात करने को कहा, वह फोन भी ना लगे। फिर बेटे राम को कॉन्टेक्ट करने को कहा, फिर किसी तरह संचार विभाग की मेहरबानी से संपर्क हुआ और उन्हें लेकर मैं घर पहुंचा।


सुबह की फ्लाइट के लिए रात दो बजे प्रवेश की हिदायत दी गयी थी। डेढ़ बजे रात ‘कैब’ का इंतजाम कर रवानगी करवा दी गयी। उनके जाने के बाद शयन-शय्या पर पहुंचा ही था कि कुछ देर के लिए बिजली गायब हो गयी साथ ही कार्ड-लेस भी सेंस-लेस हो गया। बिजली आने पर कैब चालक का फोन मिला कि आपका फोन नहीं लग रहा था। इधर नेट बंद होने की वजह से मेरा जीपीएस काम नहीं कर रहा है। अब आप इंतजार करेंगे या गाड़ी छोड़ना चाहेंगे? मेरे पूछने पर कि क्या उसे रास्ता नहीं पता? तो उसने बताया कि वह गाजियाबाद में काम करता है, इधर के मार्गों की उसे जानकारी नहीं है।


मैंने उसे धौला कुआं का रास्ता बताया तो उसने अपनी पोजीशन पंखा रोड की बताई, क्योंकि “उसकी गाइड” ने बंद होने के पहले द्वारका का रास्ता सुझाया था। कार सवार दोनों रास्ते से अंजान, रात के दो बजे कोई कुत्ता तक सड़क पर नजर नहीं आ रहा था, ना ही कोई पुलिस बूथ, समय निकलता जा रहा था। ऐसे में मुझे यही सूझा कि गाड़ी निकाल खुद ही चला जाए “रेस्क्यू आॅपरेशन” पर। जल्दी-जल्दी चालक को जहां है, वहीँ रुकने को कहा और रात्रि-विहार पर निकला ही था कि उसका फोन आ गया कि नेट शुरू हो गया है। सुनकर सर से तनाव दूर हुआ राहत की सांस ली और वापस घर आकर बिस्तर पर जा गिरा। तीन बजते-बजते उन लोगों के एयरपोर्ट पहुँच जाने की खबर भी मिल गयी। तब सोना हो पाया। बात छोटी सी ही थी, यह भी कहा जा सकता है कि आधुनिक तकनीकी के कारण ही बात बन सकी पर यह घटना हमारी दिन पर दिन मशीनों पर निर्भर होती जाती जिंदगी को भविष्य का आईना भी दिखा रही है।

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