क्या सच्चे संतों या धर्मगुरुओं से लोगों का मोहभंग हो गया है ?
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एक पारिवारिक शादी के कारण 25 अगस्त को पंचकुला में ही उपस्थिति थी। अब शादी-ब्याह का मुहूर्त तो महीनों पहले से ही तय हो जाता है उसी के अनुसार 22 शामको पहुँच कर 25 सुबह की रवानगी थी। यह संयोग ही था कि गुरमीत राम रहीम जैसे ढोंगी को भी अपनी करनी का फल पच्चीस को ही मिलना तय हुआ । वहाँ रहने के दौरान वैसे तो सब सामान्य लग रहा था पर जिस तरह से आस-पास के गांव-देहात-कस्बों के लोग, धारा 144 लगे होने के बावजूद, ट्रेन, बस, ट्रैक्टर, गाडी या फिर पैदल ही, जैसे भी संभव था, हर रास्ते से छोटे-छोटे गुटों में आ रहे थे। हालाँकि न्यायालय के काफी पहले ही उन्हें रोक दिया गया था पर हजारों की तादाद में
पुरुष-महिलाओं के हुजूम ने, अपनी हर तरह की जरूरतों को नजरंदाज कर जिस तरह वहीँ सड़कों पर डेरा डाल दिया था, उससे शहर निवासियों को आसन्न अनिष्ट की आशंका का आभास मिल रहा था, पुलिस की भारी तादाद के बावजूद ! कार्यक्रम के दौरान माहौल को भांपते हुए कुछ लोग चौबीस की रात को और कुछ पच्चीस की सुबह मुंह-अँधेरे अपने-अपने साधनों से अपने घरों को लौट लिए थे। मेरे छोटे बेटे की ट्रेन सुबह करीब पौने सात की थी, उसी के हिसाब से निकले पर पाया कि स्टेशन पहुँचने के तमाम मार्ग सील कर दिए गए थे। हमारी रवानगी दोपहर की थी पर हालात देखते हुए उसे कैंसिल करवाना पड़ा।
गुरमीत का फैसला अढ़ाई बजे आना था। पर वातावरण में पहले ही भारीपन आ चुका था। शाम होते-होते तो सारा शहर खौफ के धुंए में घिर गया, अराजकता पूरी तरह फ़ैल चुकी थी। इंटरनेट सेवा रोक दी गई थी। कालोनियों के बड़े गेट बंद कर दिए गए थे। लोग पुलिस की चेतावनी के बावजूद बिगड़ते माहौल को देखने के लिए अपने घरों की छतों पर चढ़े हुए थे। काफी मशक्क्त के बाद किसी तरह उपद्रव पर काबू पाया गया।
कुछ देर बाद घर के पास का जायजा लिया तो साफ़ लगा कि यह सब जो हुआ या किया गया वह गांव-देहात के सीधे-साधे लोगों का नहीं, पेशेवरों का काम था। हमारे घर के पीछे के पार्क के पेड़ों की मजबूत डालियाँ काट कर
उनसे लाठियां बनाई गयी थीं। पैदल पथ पर लगी टायल्स को उखाड़ कर उनसे पत्थरबाजी की गयी थी। रेलिंगे उखाड दी गयी थीं। पुलिस द्वारा लगाई गयी कटीली तारों को भी हथियार बना लिया गया था। यह तो सिर्फ एक जगह का हाल था। इस सब के क्यूँ-कैसे के बारे में तो अखबारें, टी.वी. चैनल बता ही रहे हैं ! पर यह सब सामने घटता देख, बरबस कुछ दिनों पहले आई “नायक” फिल्म की याद आ जाती है। इन सब घटनाओं को देखते हुए यह प्रश्न मन में उठता है कि, भोले-भाले लोगों को अपने झांसे में फंसा करोड़ों इकठ्ठा करने वाले, धर्म के नाम पर गुमराह कर अपना घर भरने वाले, आम आदमी की भावनाओं से खेल उनका शोषण करने वाले, अपने आप को भगवान मनवाने वाले ढोंगियों की कैसे बन आती है ? क्यों लोग सच्चे साधू-संतों से मार्ग-दर्शन लेने के बदले, उनके प्रवचन सुनने की बजाय इन ढोंगियों की चालों में फंस अपना सब कुछ लुटा बैठते हैं ? क्यों हमारे बड़े-बड़े संत, महात्मा शंकराचार्य, धर्माधिकारी इस बाबत चुप्पी साध लेते हैं ? क्यों नहीं वे लोग आगे आ लोगों को जागरूक करने की कोशिश करते ?
प्रशासन क्या नहीं कर सकता, इसका उदाहरण 28 अगस्तहै, जिस दिन तथाकथित बाबे की सजा की अवधि निश्चित होनी थी, मजाल है किसी परिंदे ने कहीं भी बिना इजाजत पर मारा हो। पर घूम-फिर कर बात वहीँ आ जाती है कि कब हम जागरूक होंगे ? कब ढोंगी बाबाओं, चंट नेताओं, भ्रष्ट अफसरों को आईना दिखा पाएंगे ? कब हमें अपने अच्छे-बुरे की पहचान होगी ? कब हम दूसरों के बहकावे में आ अपना ही अहित करने से बचेंगे ? ऐसा करना या होना मुश्किल जरूर लगता है पर आज हर तरह से सशक्त, समर्थ, बाहुबली को उसकी सही जगह पहुंचाने में जिस तरह मुकदमे से जुडी दोनों महिलाओं ने हर मुसीबत, हर डर, हर धमकी को असहनीय तनाव झेलते हुए जैसा साहस दिखलाया है, उसका तो कोई सानी ही नहीं है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। डेढ़ दशक कोई छोटा-मोटा समय नहीं होता। अच्छे-अच्छे मजबूत इरादे वाले धराशाई हो जाते हैं या कर दिए जाते हैं।
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