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एक पुरानी फिल्म, ‘यकीन’ का गाना है… “बच बच के, बच के, बच बच के, बच के कहाँ जाओगे”, जो आज पूरी तरह देश के मध्यम वर्ग पर लागू है। उस गाने के बोलों को बिना जुबान पर लाए, आजमाया जा रहा है, देश के इस शापित वर्ग पर। देश की जनता समझ तो सब रही है, फिलहाल चुप है। पर उसकी चुप्पी को अपने हक़ में समझने की भूल भी लगातार की जा रही है। आम-जन के धैर्य की परीक्षा तो ली जा रही है, पर शायद यह सच भुला दिया गया है कि हर चीज की सीमा होती है। नींबू चाहे कितना भी सेहत के लिए मुफीद हो, ज्यादा रस पाने की ललक में अधिक निचोड़ने पर कड़वाहट ही हाथ लगती है।
सरकारी, गैर-सरकारी कंपनियों की कमाई कहाँ से आती है, मध्यम वर्ग से। देश भर में मुफ्त में अनाज, जींस, पैसा बांटा जाता है, उसकी भरपाई कौन करता है, मध्यम वर्ग। सरकारें बनाने में किसका सबसे ज्यादा योगदान रहता है, मध्यम वर्ग का। फिर भी सबसे उपेक्षित वर्ग कौन सा है, वही मध्यम वर्ग।
अब तो उसे ना किसी चीज की सफाई दी जाती है और ना ही कुछ बताना गवारा किया जाता है। तरह-तरह की बंदिशों के फलस्वरूप इस वर्ग के अंदर उठ रहे गुबार को अनदेखा कर उस पर धीरे-धीरे हर तरफ से शिकंजा कसा जा रहा है कि कहीं बच के ना निकल जाए। ऐसा करने वाले उसकी जल्द भूल जाने वाली आदत और भरमा जाने वाली फितरत से पूरी तरह वाकिफ हैं, इसीलिए अभी निश्चिंत भी हैं। पर कब तक ?
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