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शहरों को कंक्रीट का जंगल कहा जाता है। पर प्रकृति निर्मित जंगल फिर भी बेहतर हैं। भले ही वहाँ जंगल राज चलता हो पर वहां के रहवासी एक-दूसरे को, उनकी प्रकृति को जानते-समझते तो हैं। इन शहरी कंक्रीट के जंगलों में तो इंसान अपने परिवार तक ही सिमट कर रह गया है। समय ही नहीं है किसी के पास किसी के लिए। पहले छोटे शहरों-गावों में अधिकाँश लोग एक परिवार जैसे हुआ करते थे। सब का सुख-दुख तक़रीबन साझा हुआ करता था।
समय काफी बदल गया है। गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है जो अपने साथ-साथ लोगों की आँख का पानी भी बहाकर ले गया है। अब तो मोहल्ले, काॅलोनी को छोड़िए लोग अपने पड़ोसी तक को पहचानने से गुरेज करने लगे हैं। आस-पड़ोस के लोगों की पहचान भी घरों के नंबर से होने लगी है।
312 वाले मल्होत्रा जी, 162 में ग्राउंड फ्लोर वाले शर्मा जी, 224 में शायद वर्मा जी रहते हैं। वही जिनका ऑपरेशन हुआ था? अरे नहीं वे तो थर्ड फ्लोर पर हैं अग्रवाल, वर्मा जी उनके नीचे रहते हैं। तीन साल हो गए, एक-दो बार दुआ-सलाम ही हुई है, बस।
अब ऐसे में जब जान-पहचान ही नहीं है तो कौन किसके सुख-दुःख में शामिल होगा। क्या कोई किसी के काम आएगा। क्या किसी के प्रति किसी की संवेदना रहेगी। ऐसे में क्या ठीक है क्या नहीं या कौन सही है कौन गलत, इसका फैसला करना भी मुश्किल है।
कल मेरे ठीक बगल वाले मकान में एक सज्जन का देहांत हो गया। सारा क्रिया-कर्म संध्या तक जाकर हो पाया। उनके घर से ठीक दो मकान छोड़ तीसरी बिल्डिंग में गृह-प्रवेश था। वहाँ आज सुबह से ही उत्सव का माहौल बना हुआ था। नौ बजे से ही बैंड-बाजे के साथ नाच-गाना शुरू हो गया।
कुछ अजीब सी स्थिति लगी। घंटे-पौन घंटे के बाद शोर थमा तो लगा कि अगले की भी तो अपनी ख़ुशी मनाने का पूरा हक़ है, चलो घंटे भर ही सही शोर बंद तो हुआ। पर कुछ देर बाद फिर वहीँ ढोल बजना शुरू हो गया, जिसके साथ-साथ फिर वैसा ही शोर-शराबा।
कुछ देर बाद ताशे बजने लगे, फिर तुरही-शहनाई जैसा कुछ। यानी अगले ने अपने आने की घोषणा पूरे जोशो-खरोश से सबके कानों तक पहुंचाई। किसी के दुःख-दर्द का बिना एहसास किए और यह सब करीब दोपहर एक बजे तक चलता रहा। खुशी और गम के बीच सिर्फ दो मकान थे।
यह सब सही था या गलत इसके लिए कोई पैमाना तो है नहीं। एक के घर गमी थी ना पूरी होने वाली क्षति। उदासी-गम का माहौल। दूसरी तरफ एक ने नया घर लिया था, इतनी बड़ी उपलब्धि पर उसका, परिवार-परिजनों के साथ खुश होना वाजिब था।
बाकी के लोगों का दोनों घरों से कोई रिश्ता भी नहीं है, निरपेक्ष हैं सभी। पर क्या नवागत से, दूसरा परिवार कभी मन की कसक दूर कर पाएगा? क्या दोनों एक-दूसरे से सहज हो पाएंगे? कुछ तो कहीं था, जो कचोट रहा था। ऐसा क्यों लग रहा था जैसे संवेदनाएं खत्म हो चुकी हैं। क्या उत्सव को बिना शोर-शराबे के संयमित हो नहीं मनाया जा सकता था ?
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