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उम्र बढ़ने के साथ-साथ जब काम का बोझ कुछ कम हो गया है, थोड़ी सी निश्चिंतता साथ रहने लगी है। दिन भर में कुछ समय नितांत अपना होने लगा है तब उस सिर्फ अपने समय में पुरानी, बहुत पुरानी यादें साकार सी होने लगती हैं। पता नहीं ऐसा मेरे साथ ही हो रहा है कि सभी के साथ होता है। अक्सर लौट जाता हूँ और खोने लगता हूँ, वर्षों पुराने बचपन की ओर। भोलापन, मासूमियत, शरारतें सब सामने आ-आकर मुस्कुराने पर मजबूर कर देती हैं। यादें तो ढेर सारी हैं, पर सब मुक्तक रूपी, टुकड़े-टुकड़े में, सिलसिलेवार न होकर एक से दूसरी तक कूद लगाती हुईं। ऐसे में सबको एक समय में एक साथ लिखना ना ही संभव है और ना ही मुनासिब। फिर भी कुछेक को बंदी बनाने की चेष्टा का प्रलोभन रोका नहीं जा पाता।
उन दिनों गर्मियों में स्कूल सुबह के हो जाते थे तथा दस-साढ़े दस तक छुट्टी हो जाया करती थी। उस समय उम्र रही होगी सात-आठ साल की। पिताजी बंगाल में कलकत्ता से करीब 10-12 किलाेमीटर दूर कोननगर नामक जगह में लक्ष्मीनारायण जूट मिल में उच्च पद पर कार्यरत थे। फर्म की तरफ से मिल के अंदर मिले बंगले में हम सिर्फ तीन जने। बाबूजी, माँ तथा मैं। दोपहर को लंच बाद माँ कुछ देर के लिए आराम करती थीं, इसलिए जब बाबूजी फिर काम पर जाते थे तो मैं धूप में बाहर ना चला जाऊं, इसलिए दरवाजे में बाहर से कुंडी लगाकर जाते थे जिसे घर में काम करने वाला जीतू, अपने आने पर खोलकर आ जाता था।
मुझे घर पर रखने का हर तरह का इंतजाम किया जाता रहता था। तरह-तरह के खिलौने, उस समय उपलब्ध हर तरह की बाल-पत्रिकाएं, जिनके कुछ के नाम मुझे अभी भी याद हैं, मनमोहन, बालक, चंदामामा, चुन्नू-मुन्नू, फिर पराग आदि। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी तथा इलस्ट्रेडेड वीकली तो अलग थीं, जिनका शौक व चस्का बाद में लगा और उनके बंद हो जाने तक रहा। हालांकि कादम्बिनी अभी भी लेता हूँ पर वो वाली बात अब कहीं नहीं रही। यह सब कुछ देर के लिए ही मुझे बाँध पाते थे। प्रकृति सदा मुझे आकर्षित करती रही है।
घर के आसपास दसियों तरह फल और फूलदार पेड़-पौधे थे। जामुन से लेकर नारियल के पेड़, एक एकड़ में देसी-विदेशी गुलाब की नस्लों के अलावा इतने ढेर सारे फूल, चाहे बिस्तर बना लो। उस समय बिना मनाही के भी कोई बेकार में फूल-पत्तियाँ नहीं तोड़ता था। तरह-तरह के पक्षियों से भी तब सचमुच का दोस्ताना था। कबूतर-गौरैया इत्यादि तो मेरे पास तक आकर दाना चुगा करते थे। ढेर सारी रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी तितलियाँ आ-आकर मेरे सर-कंधों पर बैठ जाया करती थीं। घर में एक शीशे का दरवाजा हुआ करता था, मैं हौले-हौले, उस उम्र में भी इसका ध्यान रखते हुए कि उस कोमल जीव को कोई हानि या तकलीफ ना पहुंचे, उन्हें उस दरवाजे के पीछे कुछ देर के लिए छोड़ देता था। पचासों तितलियाँ वहाँ उड़ कर स्वर्गिक दृश्य को साकार कर देती थीं।
उन दिनों हम बच्चों के लिए हर काम का समय निश्चित किया हुआ होता था। जिस में शाम को खेलने का समय करीब चार-साढ़े चार का तय था। पर जब हवा कुछ तेज होती थी तो मुझे लगता था कि पेड़ों की पत्तियों की सरसराहट, दसियों फिट ऊँचे नारियल के पेड़ों का झूमना, फूलों की सुगंध, चिड़ियों का कलरव सब मुझे बाहर बुला रहे हैं। अपनी ओर खींचते से लगते थे, ये सब। अफ़सोस होता है आज के बच्चों को इन नेमतों से दूर होते देख।
हमारे घर में बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं जिनमें सलाखें लगी हुई थीं। उनमें से एक खिड़की की सबसे आखिरी सलाख में इतनी जगह थी कि मैं उसमें से बाहर निकल सकूँ। बस इधर बाबूजी जाते, उधर मैं किसी तरह खींचते-खांचते खिड़की से कूद पहुंच जाता प्रकृति की गोद में। उस समय पेड़-पौधे, फूल-पत्तियां, कीड़े-मकौड़े ही मेरे साथ होते थे।
खूब बातें किया करता था उनसे, इस विश्वास के साथ कि वे भी मेरी बात को समझते-बूझते हैं। यह सब तब तक चलता था जब तक और बच्चे नहीं आ जाते थे मानवीय खेल खेलने। उनके आने की भनक लगते ही मैं अपने इन दैवीय दोस्तों को विदा कह देता था, क्योंकि मेरे अंदर यह डर भी था कि कहीं कोई मेरे इन मासूम दोस्तों को हानि या चोट ना पहुंचा दे। हानि और चोट तो मुझे मिलती थी जब माँ द्वारा बाबूजी के आने पर मेरी शिकायत होती थी, खिड़की से भागने की।
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