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इस मंदिर की घंटियों की संख्या का अंदाज भी नहीं है किसी को…

kuchhalagsa.blogspot.com
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घंटियां ही घंटियां। छोटी-बड़ी-मझौली हर आकार-प्रकार की। हर तरफ मंदिर में ऐसी कोई खाली जगह नहीं दिखती जहां घंटियां ना बंधी हों। कोई हाथ के अंगूठे जितनी बड़ी है, कोई हथेली जितनी है, तो कोई बित्ते भर की, एक-दो तो हाथी के सर जैसी भारी-भरकम, जिसे तो घंटा ही कहा जा सकता है। टनों वजन की इन घंटियों की संख्या का अंदाज भी नहीं है किसी को, जिन्हें यहां श्रद्धालु भक्तगण अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर आ कर बांधते है। यह नजारा है उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र के अल्मोड़ा जिले के चित्तई नामक ग्राम में स्थित गोलू देवता के मंदिर का।
पहाड़ी अंचल को देवभूमि भी कहा जाता है। वहाँ के चप्पे-चप्पे पर शिव, शक्ति, विष्णु भगवान के बहुत सारे प्रसिद्ध और विश्व-विख्यात मंदिर तो स्थित हैं हीं उनके साथ ही अनेकों स्थानीय देवी-देवताओं के भी कई पूजा-स्थल मौजूद हैं, जो अपने-आप में अनोखे और अलग हैं। उनकी अपनी पहचान और मान्यता है तथा लाखों लोग उनमें आस्था रखते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल के अल्मोड़ा क्षेत्र के चितइ गांव में स्थित गोलू देवता का मंदिर भी ऐसा ही एक धर्म स्थल है। इन्हें न्याय का देवता माना जाता है। जिस किसी को भी कोई तकलीफ या मुसीबत से छुटकारा न मिल रहा हो, हर तरफ से निराश हो चुका हो, वह चाहे देश के किसी भी हिस्से में रहता हो, यहां सिर्फ एक अर्जी लगा अपने कष्टों से मुक्ति पा सकता है। अर्जियों के साथ ही घंटियां चढ़ाने की भी प्रथा है।
यहां की एक खासियत है कि इस मंदिर में भक्तों द्वारा जो घंटियां चढ़ाई जाती हैं उन्हें उतार कर दोबारा ना हीं बेचा जाता है और ना हीं उनका उपयोग कहीं और किसी और रूप में किया जाता है।  ये सभी घंटियां मंदिर के प्रांगण में ही बंधी रहती हैं। जगह कम पड़ने पर कुछ को उतार कर सुरक्षित रख दिया जाता है। इसीलिए इस मंदिर में घंटियों का ढेर लगा हुआ है। मूल मंदिर के निर्माण के संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी तो उपलब्ध नहीं हो सकी पर व्यवस्थापकों के अनुसार 19वीं सदी के पहले दशक में इसका निर्माण हुआ था। मंदिर के अंदर घोड़े पर सवार, हाथ में धनुष-बाण लिए गोलू देवता की प्रतिमा स्थापित है।



गोलू देवता की कहानी एक मनुष्य के देवता की मान्यता प्राप्त करने की कथा है। ऐसा माना जाता है कि गोलू देवता ने अपनी माता को न्याय दिलवाया था। गोलू देवता चम्पावत के राजा झालाराय के पुत्र थे। सात रानियों के होते हुए भी कोई संतान ना होने से वे बहुत दुखी रहा करते थे। अपने गुरु के कहने पर पुत्र प्राप्ति के लिए उनहोंने भैरव देवता की आराधना की। जिससे प्रसन्न हो भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम  किसी वीरांगना से आठवां विवाह करो तब मैं पुत्र रूप में तुम्हारे घर आऊंगा। इसके बाद राजा एक दिन शिकार के लिए गए थे तो उन्हें एक कन्या दिखाई दी जो दो लड़ते हुए सांडों को अलग कर रही थी। राजा उससे बहुत प्रभावित हुए और उसके घरवालों से बात कर, कलिंगा नाम की कन्या को अपनी रानी बना लिया। इससे बाकी रानियां द्वेष के मारे कलिंगा से ईर्ष्या करने लगीं और जब उनका संतान प्राप्ति का योग बना तब उन सब ने मिल कर उसके पुत्र को सील बट्टे से बदल दिया और बच्चे को एक लोहे के बकसे में रखकर पानी में बहा दिया।

 

 

बहते बहते ये बक्सा एक मछुआरे के जाल में फंस गया। बक्से में जीवित बालक को इस नि:संतान दम्पति ने प्रभु का आशीर्वाद मान, अपना लिया और बच्चे का नाम गोरिल रख दिया। धीरे धीरे बालक अपनी बाललीला के साथ साथ चमत्कार भी दिखाने लगा और आस पास के लोग उसे चमत्कारी बालक मानने लगे। जब वह कुछ बड़ा हुआ तो गोरिल ने बालहठ में आ कर घोड़े की मांग करी, अब गरीब मछुआरा असली का घोडा कहाँ से लाता, इसलिए उसने लकड़ी का एक घोडा बनवा कर गोरिल को दे दिया जिसे ले वह दूर दूर तक घूमने लगा।  एक दिन घूमते घूमते अपने पिता की राजधानी धूमाकोट पहुँच गया। उस समय वहां के शाही जलाशय में  राजा के साथ रानियां भी उपस्थित थीं।

 

 

गोरिल ने उनसे जलाशय में अपने घोड़े को पानी पिलाने की अनुमति मांगी। रानियां उसका उपहास करते हुए बोलीं: बेवकूफ, कहीं लकड़ी का घोडा भी पानी पीता है ? तो बालक बोला, जब एक स्त्री सिल-बट्टे को जन्म दे सकती है तो लकडी का घोडा भी पानी पी सकता है। इस तरह से उसने अपने जन्म की पूरी कथा राजा को सुनाई और अपनी माता कलिंगा को न्याय दिलवाया। इसके बाद राजा ने उसे अपना राजपाट सौंप दिया और गोरिल राजा बन अपने आस पास के लोगों को न्याय दिलाने लगे और धीरे-धीरे गोलू देवता के नाम से विश्व-प्रसिद्ध हो गए। कहानियां तो कई जुडी हुईं हैं उनसे, पर सबसे ज्यादा यही कथा प्रचलित है।



चितई मंदिर अल्मोड़ा से पिथौरागढ़  मार्ग पर शहर से करीब आठ-नौ किलोमीटर की दूरी पर सड़क के किनारे ही स्थित है। जैसा कि हर मंदिर के सामने दुकानों का जमघट होता है यहां भी वैसे ही दुकानें सजी मिलती हैं। जहां प्रसाद के साथ-साथ घंटियों भी उपलब्ध होती हैं। मंदिर के द्वार से ही घंटियों का खजाना दिखने लगता है। द्वार से लेकर मंदिर तक दर्शनार्थियों को धूप से बचाने के लिए प्लास्टिक सहित की छत डाली गयी है। उसमें लगे लोहे के डंडे दिखाई नहीं पड़ते सब को घंटियों ने ढांक रखा है।
मंदिर परिसर में पेड़, छत, पाइप, रेलिंग, खंभे, दरवाजे कहीं भी इंच भर की जगह खाली नहीं दिखाई पड़ती सब जगह घंटियां ही घंटियां। जगह उपलब्ध करवाने के लिए इससे ज्यादा को हटा कर सुरक्षित भी रखा गया है। इनके साथ ही लोगों की हजारों-लाखों अर्जियां-चिट्ठियां खंभो पर टंगी हुई। ऐसी मान्यता है कि किसी इंसान द्वारा इन्हें पढ़ना वर्जित है और  गोलू देवता सच्ची अरदास पर तुरंत न्याय करते हैं। घंटियों और अर्जियों की असंख्य तादाद से लोगों का गोलू देवता पर विश्वास का अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। शायद ही ऐसा कोई इंसान होगा जो यहां आकर गोलू देवता का दर्शन करने ना जाता हो। तमाम आधुनिकताओं के बावजूद लोगों की अपने धर्म, अपनी आस्थाओं, अपनी परंपराओं पर अटूट विश्वास का साक्षात उदहारण हैं, गोलू देवता।

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