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एक है, सफदरजंग रेलवे स्टेशन

kuchhalagsa.blogspot.com
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#हिन्दी_ब्लागिंग

जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है वैसे-वैसे हर व्यवस्था चरमराने लगी है। विडंबना यह है की मूल समस्या पर ध्यान ना दे पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। इन गड़बड़ाती व्यवस्थाओं से रेल भी नहीं बच पाई है या कहा जाए तो वह ही सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाली व्यवस्थाओं में सर्वोपरि है। बढ़ती भीड़, कम जगह, काम टालने की प्रवृत्ति, चरमराती प्रणाली, सबने मिल कर इस सबसे जरुरी सेवा को पंगु सा बना दिया है। आप किसी भी बड़े शहर के मुख्य रेलवे स्टेशन पर चले जाइये, अराजकता की हद देखने को मिल जाएगी। मेट्रो शहरों का तो और भी बुरा हाल है, चाहे कोलकाता हो, मुंबई हो या फिर हमारी राजधानी !

आबादी के विस्फोट से दुविधाग्रस्त हो, जनता की मुसीबतों को नजरंदाज कर, रेलवे ने मेट्रो और उन जैसे बड़े शहरों के मुख्य स्टेशनों के अलावा वहाँ के उपनगरीय छोटे स्टेशनों से भी लम्बी दूरी की गाड़ियां चलाना शुरू कर खुद को राहत देने का काम तो किया पर इससे मुसाफिरों की  मुसीबतें और बढ़ गयीं। ऐसे ज्यादातर स्टेशनों पर मूलभूत सुविधाओं का सरासर अभाव था जिस पर ध्यान नहीं दिया गया। ये स्टेशन लोकल ट्रेनों के लिहाज से बनाए गए थे सो इनकी लम्बाई भी कम थी, जबकि मेल-एक्सप्रेस गाड़ियों में, यात्रियों की संख्या में बढ़ोत्तरी के मद्देनजर डिब्बों की संख्या बढ़ाई जा चुकी है। अब होता यह है कि ऐसे उपनगरीय स्टेशनों पर आगे और पीछे के कई-कई डिब्बे प्लेटफार्म के बाहर ही रह जाते हैं जिससे यात्रियों, खासकर उम्रदराज, बच्चों और महिलाओं की असुविधा की कल्पना ही की जा सकती है।

दिल्ली का सफदरजंग रेलवे स्टेशन ऐसी ही एक जगह है। यहां से अब लोकल गाड़ियों को छोड़ लम्बी दूरी की करीब चौदह गाड़ियों के अलावा रेलवे की गौरव “हेरिटेज ट्रेन” भी गुजरने लगी है। इसका पहुँच मार्ग, पार्किंग, प्रवेश पथ व एक नंबर प्लेटफार्म भी काफी साफ़-सुथरे और खुले-खुले हैं: पर यदि आप पहली बार यहां से गाडी पकड़ने जा रहे हैं तो कुछ ज्यादा समय हाथ में लेकर निकलें। क्योंकि इसकी निशानदेही रेलवे की ओर से ढंग से नहीं की गयी है। रिंग रोड पर तो छोड़िए, मोतीबाग तक पहुँच कर भी आप को पता नहीं चलेगा कि आपका गंतव्य कहाँ है। सफदरजंग फ्लाई-ओवर के पास एक छोटा सा बोर्ड जरूर है पर वह आसानी से ध्यान से ओझल हो जाता है और लोग पुल के ऊपर से दूसरी ओर चले जाते हैं फिर लौट कर आने को ! अब तो खैर लोगों को पता चल गया है पर इंडिकेटरों की जरुरत तो है ही। इसके अलावा सालों से एक और दो नंबर प्लेटफार्मों को जोड़ने वाला दूसरा उड़न पैदल पथ बना, नाहीं प्लेटफार्म की लम्बाई बढाई गयी है जिससे बाहर ही रह गए डिब्बों से उतरने वाले मुसाफिर को जोखिम लेकर उतरना पड़ता है ! प्लेटफार्म 2-3 तो अभी भी जर्जरावस्था में ही है।  यदि किसी दिन इस पर किसी मेल या एक्सप्रेस गाडी को आना पड़ जाए तो उसके मुसाफिरों की मुसीबत का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। गाड़ियों को डायवर्ट करने या किसी छोटे स्टेशन से उसे चलाने के पहले वहाँ से जाने वाले यात्रियों की सुविधा पर पूरा ध्यान देने की आवश्यकता होती है। क्योंकि उन्हीं की बदौलत रेलें चलती हैं पर इसी ओर सुविधाभोगी रेल अफसरों का ध्यान सबसे कम जाता है।

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